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Turkman Gate: घी और रेडियो के बदले नसबंदी, इमरजेंसी के 50 साल बाद भी यूंही नहीं कांप उठते हैं तुर्कमान गेट के लोग!

By Newsdesk Admin 25/06/2025
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25 जून 2025 :

Turkman Gate History: दिल्ली के तुर्कमान गेट की संकरी गलियों में आज भी इमरजेंसी की कड़वी यादें जिंदा हैं. 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई आपातकाल ने इस इलाके के हजारों परिवारों की जिंदगी पलभर में बदल दी. जबरन नसबंदी अभियान, अचानक हुए घरों के ध्वस्तीकरण और परिवारों के बिछड़ने की पीड़ा आज भी बुजुर्गों की आंखों में साफ दिखाई देती है.

74 वर्षीय मेहरु निशा ने बताया कि उनके घर को बिना किसी चेतावनी के गिरा दिया गया और जब उनके पति अब्दुल हमीद ने विरोध किया, तो उन्हें गोली मार दी गई. घायल पति मस्जिद में 15 महीने तक पड़े रहे और निशा को अपने गहने बेचकर बच्चों का पेट पालना पड़ा.

क्या है तुर्कमान गेट का इतिहास?

नंद नगरी, जहां इन्हें बसाया गया था, उस समय केवल खुला मैदान था. न पानी, न शौचालय, न कोई मकान- महिलाएं झुंड में बाहर जाती थीं, क्योंकि डर हर वक्त साथ चलता था. अब्दुल हमीद याद करते हैं कि उनके मोहल्ले के लोग जब अपने घर बचाने की कोशिश कर रहे थे, तभी पुलिस ने फायरिंग कर दी और लोग घायल हो गए. ये सिर्फ घरों का उजड़ना नहीं था, यह पूरी जिंदगी का बिखरना था. इसके साथ ही टर्कमान गेट नसबंदी अभियान की भी चपेट में आ गया, जिसे उस समय संजय गांधी की अगुवाई में चलाया गया.

नसबंदी करवाने वालों को घी, रेडियो और 250 रुपये दिए गए- रजिया 

75 वर्षीय रजिया बेगम, जो उस वक्त यूथ कांग्रेस से जुड़ी थीं, बताती हैं कि उन्होंने खुद संजय गांधी को जामा मस्जिद के पास भीड़ दिखाते हुए नसबंदी शिविर लगाने की सलाह सुनी. रजिया खुद घर-घर जाकर लोगों को ‘छोटा परिवार’ का संदेश देती थीं, लेकिन उन्हें अपमान का सामना करना पड़ता. लोग डर और गुस्से में थे, और जब बुलडोजर रजिया के घर तक पहुंचा, तो वह भी प्रदर्शन में शामिल हुईं और घायल हो गईं. उस दौर में नसबंदी करवाने वालों को घी, रेडियो और 250 रुपये तक दिए जाते थे, लेकिन यह मुआवजा उनके टूटे घरों और बिखरे सपनों की भरपाई नहीं कर सका.

शाहिद गंगोई, उस वक्त कॉलेज में फर्स्ट ईयर के छात्र थे, जब उन्हें स्कूल में बताया गया कि उनके घर को गिराया जा रहा है. वह दौड़ते हुए पहुंचे, लेकिन तब तक उनका घर मिट्टी में मिल चुका था और उनके पिता नमाज के दौरान गिरफ्तार कर लिए गए थे. गलियों में आंसू गैस, टूटा कांच और चीखें थीं और फिर पुलिस ट्रकों में भरकर उन्हें नंद नगरी भेज दिया गया. 

इमरजेंसी का दौर 21 महीने चला, जिसमें नागरिक अधिकार निलंबित किए गए, प्रेस पर सेंसरशिप लगी, और सरकार के आदेश पर हजारों लोगों की गिरफ्तारी और जबरन नसबंदी हुई. अब आधी सदी बीत चुकी है, लेकिन तुर्कमान गेट में आज भी वो दर्द सांसे भर रही है- किसी की खामोश सिसकी में, किसी टूटी ईंट में तो किसी बुजुर्ग की झुकी आंखों में.

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