सीजी भास्कर, 01 अक्टूबर। बिहार की राजनीति में लंबे समय तक चारा घोटाले का शोर रहा और भ्रष्टाचार के कठघरे में राजद ही घिरा रहा। लेकिन इस बार कोई धड़ा ऐसे आरोप-प्रत्यारोप से बचा नहीं है। रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर उर्फ पीके ने सत्ता और विपक्ष, दोनों के कई दिग्गजों को निशाने पर लिया है। नतीजा, सभी पार्टियां खुद को ‘भ्रष्टाचार मुक्त’ बताने में जुट गई हैं।
जबकि खुद पीके से यह सवाल पूछा जा रहा है कि उनके पास पैसा कहां से आ रहा है। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि बिहार में जाति अप्रासंगिक हो गई है, लेकिन इतना तय है कि इस बार हार-जीत का फैसला केवल जातीय समीकरण से नहीं होगा। चुनाव ‘कौन भ्रष्ट और कौन ईमानदार’ के नैरेटिव पर भी लड़ा जाएगा।
भ्रष्टाचार के एजेंडे पर आक्रामक पीके
बिहार : लंबे समय से बिहार की राजनीति विकास बनाम जंगलराज की धुरी पर घूमती रही है। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद इसी आधार पर अपने-अपने वोट बैंक को साधते रहे हैं। लेकिन पीके ने इस बहस की दिशा बदल दी है। पिछले दो वर्षों से वह लगातार यह सवाल उठा रहे हैं कि कौन नेता कितना पारदर्शी है और किस पर (Corruption Politics) के कितने दाग हैं।
पीके ने भाजपा नेता एवं उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी, प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल, सांसद डा. संजय जायसवाल और स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय तक को कठघरे में खड़ा किया है। जदयू कोटे के मंत्री अशोक चौधरी पर तो उन्होंने दो सौ करोड़ रुपये की हेराफेरी कर जमीन खरीदने का गंभीर आरोप जड़ दिया है। राजद नेता तेजस्वी यादव भी उनके प्रमुख निशाने पर हैं। पीके का हमला अक्सर इतना तीखा होता है कि सामने वाले नेताओं को खुलकर सफाई देनी पड़ती है।
पलटवार भी उतने ही धारदार
पीके पर राजनीतिक पलटवार भी तेज हैं। अशोक चौधरी ने उनके विरुद्ध मानहानि का नोटिस भेजा है। सत्ता पक्ष के नेता उनके आरोपों को मनगढ़ंत बताते हुए कहते हैं कि वह केवल सुर्खियां बटोरने के लिए बड़े नेताओं को निशाना बना रहे हैं। सम्राट चौधरी ने यहां तक कहा है कि चुनाव से पहले पीके बिहार की जनता को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं। वह पीके के खर्च के स्रोत पर भी सवाल उठाते हैं और पूछते हैं कि इतने पैसे आ कहां से रहे हैं। यही वजह है कि (Corruption Politics) पर बहस और गहरी होती जा रही है।
नया विमर्श या क्षणिक शोर?
राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार का मानना है कि पहली बार बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों से हटकर (Corruption Politics) और ईमानदारी पर टिकती दिख रही है। यह बदलाव ऐतिहासिक है। आने वाले चुनाव में मतदाता केवल जाति नहीं, बल्कि उम्मीदवार की छवि और रिकार्ड को भी परखेंगे। अभय का कहना है कि युवाओं और शहरी मतदाताओं में यह विमर्श खासा असर डाल सकता है, क्योंकि वे रोजगार और शिक्षा के साथ पारदर्शी शासन की उम्मीद कर रहे हैं। हालांकि ग्रामीण इलाकों में जातीय आधार अब भी मजबूत है और वहां भ्रष्टाचार का मुद्दा उतना निर्णायक साबित नहीं हो सकता।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस चुनावी नैरेटिव में पारदर्शिता और ईमानदारी का मुद्दा लंबे समय तक टिका तो यह बिहार की राजनीति की दिशा बदल सकता है। लेकिन अगर यह सिर्फ कुछ महीनों की सुर्खियों तक सीमित रह गया तो (Corruption Politics) का यह विमर्श अगले चुनाव में फीका भी पड़ सकता है।