सीजी भास्कर, 14 नवंबर | Bilaspur HighCourt Order से जुड़े इस पूरे मामले में अदालत ने पुलिस की कार्रवाई को लेकर तीखी टिप्पणी की है। कोर्ट ने माना कि आरोपी को सरेंडर करने के लिए निर्धारित समय दिया गया था, फिर भी पुलिस ने जल्दबाज़ी दिखाते हुए उसे गिरफ्तार कर लिया। डिवीजन बेंच ने कहा कि यह कदम संविधान के संरक्षण प्राप्त अधिकारों के विपरीत है।
(HighCourt Direction)
सरेंडर की वैध अवधि के बीच ही कार्रवाई
अदालत ने 8 अक्टूबर 2025 को आरोपी विजय चौधरी को एक महीना का समय दिया था, ताकि वह ट्रायल कोर्ट में आत्मसमर्पण कर सके। यह अवधि 8 नवंबर तक वैध थी। इसके बावजूद 29 अक्टूबर को ही सिविल लाइन थाने की टीम ने विजय को उठाकर गिरफ्तारी दर्ज कर ली।
याचिकाकर्ता ने इसे सीधे-सीधे न्यायिक आदेश की अनदेखी बताते हुए चुनौती दी।
एसएसपी के जवाब पर कोर्ट की तीखी टिप्पणी
हाईकोर्ट के नोटिस पर पेश किए गए एसएसपी के हलफनामे में कहा गया था कि पुलिस को “विश्वसनीय सूचना” मिली थी कि आरोपी किसी दूसरे अपराध की कोशिश कर सकता है, इसलिए गिरफ्तारी जरूरी थी।
लेकिन चीफ जस्टिस की बेंच ने इस तर्क को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा—
“जब समय सीमा कोर्ट ने तय कर दी थी, तब पुलिस को स्वयं निर्णय लेने के बजाय अदालत की अनुमति लेनी चाहिए थी।”
(Illegal Arrest Case)
मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना गया
बेंच ने स्पष्ट कहा कि बिना अनुमति की इस कार्रवाई से आरोपी के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 20 और 21 के तहत कोई भी संस्था न्यायालयीय आदेश को खुफिया इनपुट के आधार पर नहीं बदल सकती।
हालांकि पुलिस की तरफ से बिना शर्त माफी भी दर्ज की गई, जिसे कोर्ट ने स्वीकार कर लिया।
सरकार को मुआवजा देने का निर्देश
अदालत ने गिरफ्तारी को अवैध घोषित करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिया कि दो सप्ताह के भीतर विजय चौधरी को 10 हजार रुपये का मुआवजा दिया जाए।
यह आदेश इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कोर्ट ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया से बाहर जाकर की गई हर कार्रवाई नागरिक अधिकारों पर सीधा प्रहार है।
जानिए केस की पृष्ठभूमि
मूल मामला बिलासपुर के एक पुराने दोहरे हत्याकांड से संबंधित है। 2013 में वृद्ध दंपती दशरथ लाल खंडेलवाल और उनकी पत्नी विमला देवी पर घर में नकाबपोशों ने हमला किया था।
हमलावरों ने चाकू से वार कर पति की हत्या कर दी और पत्नी गंभीर रूप से घायल हो गईं।
उस समय की जांच में पुलिस ने चार महीने बाद दो युवकों को गिरफ्तार किया, लेकिन देरी के कारण साक्ष्य कमजोर पड़ गए।
गवाहों ने पहचान में असमर्थता जताई और सुनवाई के दौरान संदेह का लाभ देते हुए आरोपियों को रिहा कर दिया गया।
हाईकोर्ट में अपील के बाद पलटा फैसला
राज्य शासन ने आरोपियों की रिहाई के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील दाखिल की। सुनवाई में कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का निर्णय रद्द करते हुए आरोपी को सरेंडर के लिए एक माह का समय दिया था।
इसी अवधि में बिल्कुल अलग अंदाज़ में पुलिस ने जल्दबाजी दिखाते हुए गिरफ्तारी की, जिसके बाद पूरा मामला अदालत की दहलीज तक फिर पहुंच गया।
