अदालत ने कहा – आपराधिक कानून संशोधन से पहले सहमति की उम्र 16 वर्ष थी, उम्र साबित न होने पर नहीं हो सकती दोषसिद्धि
सीजी भास्कर, 28 अक्टूबर। दिल्ली हाई कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा है कि आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 (Criminal Law Amendment Act, 2013) से पहले दर्ज दुष्कर्म के मामलों में अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि पीड़िता की उम्र 16 वर्ष से कम थी। अदालत ने कहा कि यदि अभियोजन यह साबित नहीं कर पाता, तो आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
यह फैसला हाई कोर्ट ने 2005 में एक 11 वर्षीय लड़की से दुष्कर्म के आरोप में दोषी ठहराए गए व्यक्ति की अपील पर सुनाया। अदालत ने कहा कि यह अपराध उस समय हुआ जब भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 में सहमति की उम्र 16 वर्ष निर्धारित थी। 2013 के संशोधन में इसे बढ़ाकर 18 वर्ष किया गया।
20 साल पुराने केस में आरोपी को मिली राहत
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की एकल पीठ ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि उस समय पीड़िता की उम्र 16 वर्ष से कम थी। कोर्ट ने पाया कि स्कूल प्रधानाध्यापिका द्वारा जारी प्रमाणपत्र उम्र का विश्वसनीय प्रमाण नहीं माना जा सकता। अदालत ने कहा कि जब अपराध हुआ, उस समय की विधिक स्थिति के अनुसार, अभियोजन को पीड़िता की उम्र का ठोस सबूत देना अनिवार्य था। चूंकि ऐसा नहीं किया गया, इसलिए आरोपी को संदेह का लाभ (Benefit of Doubt) देते हुए बरी किया जाता है।
कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला किया रद्द
ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराते हुए पांच वर्ष के कठोर कारावास (Rigorous Imprisonment) की सजा सुनाई थी। 2007 में आरोपी ने इस फैसले के खिलाफ अपील की थी। अदालत ने कहा कि जब पीड़िता को पुलिस ने बरामद किया, तब मेडिकल रिपोर्ट में उसकी उम्र 14 वर्ष दर्ज की गई थी, जबकि अभियोजन पक्ष ने दावा किया था कि उसकी उम्र 11 वर्ष 7 महीने थी। दोनों में स्पष्ट विरोधाभास है, जिससे अभियोजन की दलील कमजोर पड़ती है।
कोर्ट का कानूनी विश्लेषण
हाई कोर्ट ने कहा कि अपराध की तारीख पर लागू कानून के अनुसार ही निर्णय होना चाहिए। 2013 के बाद सहमति की उम्र 18 वर्ष मानी जाती है, लेकिन 2005 के मामलों में यह 16 वर्ष थी। इसलिए उस समय के मामले में दोषसिद्धि तभी हो सकती है जब यह साबित हो कि पीड़िता की उम्र 16 वर्ष से कम थी।
