सीजी भास्कर, 03 अक्टूबर | बस्तर के आदिवासी संस्कृति में Munda Baja Bastar Tradition का खास स्थान है। दशहरा और अन्य धार्मिक अवसरों पर मां दंतेश्वरी की डोली और छत्र के सामने इस बाजा की धुन बजाना अनिवार्य माना जाता है। करीब 617 साल पुरानी यह परंपरा आज भी जीवंत है, और कहा जाता है कि जब तक मुंडा बाजा नहीं बजेगा, देवी की आराधना अधूरी मानी जाती है।
ढाई फीट के बाजा का इतिहास
बस्तर के पोटानारा गांव के मुंडा जनजाति के लोग ही यह बाजा बनाते और बजाते हैं। बकरे की चमड़ी और शिवना लकड़ी से निर्मित यह बाजा करीब ढाई फीट लंबा होता है। परंपरा के अनुसार, पहले मिट्टी के घड़े और मेंढक की चमड़ी से साधारण बाजा बनता था, लेकिन बेहतर आवाज निकालने के लिए बाद में बकरे की चमड़ी का इस्तेमाल शुरू हुआ।
Munda Baja Bastar Tradition : राजा और देवी के साथ जुड़ा मुंडा बाजा
कहा जाता है कि पुराने समय में बस्तर के रथ परिक्रमा के दौरान रथ कहीं फंस गया था। तब मुंडा जनजाति के लोगों ने देवी की आराधना और बाजा बजाकर रथ को मुक्त कराया। इस घटना के बाद से राजा ने आदेश दिया कि मां दंतेश्वरी की पूजा, डोली और रथ परिक्रमा में मुंडा बाजा अनिवार्य होगा।
कैसे बनता है मुंडा बाजा
मुंडा जनजाति के सदस्य बताते हैं कि दशहरा में निशा जात्रा में 12 बकरों की बलि दी जाती है। इन बकरों की चमड़ी से मुंडा बाजा बनाया जाता है। 20 से 30 लोगों का समूह इस बाजा को एक साथ बजाता है। बाजा के ढांचे पर देवी-देवताओं और रथ परिक्रमा की कलाकृतियां उकेरी जाती हैं।
Munda Baja Bastar Tradition : बजाने का तरीका और खर्च
मुंडा बाजा का एक हिस्सा गोल और मोटा, जबकि दूसरा हिस्सा पतला होता है। बजाने वाले व्यक्ति के बाएं कंधे पर रस्सी रखकर इसे बजाया जाता है। वर्तमान में एक बाजा बनाने में लगभग 10,000 रुपए का खर्च आता है और शिवना लकड़ी की कमी इसे और महंगा बनाती है।