(Air Pollution Impact) जहरीली हवा में घिरा NCR, बयान ने बढ़ाया तापमान
दिल्ली–एनसीआर में हवा का हाल किसी से छिपा नहीं है। धुंध, स्मॉग और धड़कन बढ़ा देने वाली AQI रीडिंग्स लगातार लोगों की दिनचर्या को चोट पहुंचा रही हैं, लेकिन इसी दौर में कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित का बयान राजनीतिक हलकों में नई गर्माहट लेकर आया है। उन्होंने संकेत देते हुए कहा कि शहर में जितने भी विरोध प्रदर्शन हुए, उतना गंभीरता से कोई कदम जमीन पर उतरता नहीं दिखा—जैसे प्रशासन की दिशा धुएं में कहीं खो गई हो।
“दिल्ली में हवा नहीं, मुफ्त सुविधाएं तय करती हैं वोट”
दीक्षित का सबसे तीखा बयान तब सामने आया जब उन्होंने कहा कि दिल्ली के मतदाताओं की प्राथमिकताएं प्रदूषण जैसी बुनियादी समस्या से कहीं ज्यादा “फ्री सुविधाओं (Freebie Politics)” पर टिकी होती हैं। उनके शब्दों में—“प्रदूषण का असर स्वास्थ्य पर कितना भी हो, लेकिन वोट वहीं पड़ते हैं जहां बिजली-पानी मुफ्त मिले। जब तक किसी मुद्दे का असर परिणामों पर नहीं पड़ता, सरकारें उसे गंभीरता से नहीं लेतीं।”
यह टिप्पणी सिर्फ आरोप भर नहीं है, बल्कि राजधानी की चुनावी सोच और राजनीतिक जवाबदेही पर सवाल भी है।
Delhi Voters Priority : अदालत तक पहुंची खराब हवा की चर्चा
दिल्ली की जहरीली हवा ने अब अदालत को भी परेशान कर दिया है। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने खुलकर कहा कि सुबह की वॉक के दौरान उन्हें भी सांस लेने में तकलीफ हुई, और यह समस्या किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे शहर की है। एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने स्वास्थ्य खराब होने की वजह बताई तो वे भी मान गए कि मौसम और प्रदूषण की मार अब अदालत की दिनचर्या तक पहुंच चुकी है।
प्रदर्शन में सुरक्षा और सियासत की टकराहट
इधर इंडिया गेट पर हुआ एक प्रदर्शन अचानक विवादों के घेरे में आ गया। जहां लोग हवा साफ करने की मांग कर रहे थे, वहीं कुछ लोगों के हाथ में कथित नक्सल समर्थक पोस्टर दिखने से मामला उलझ गया। हंगामा इतना बढ़ा कि पुलिसकर्मियों पर पेपर स्प्रे के इस्तेमाल तक के आरोप लगे। इस घटनाक्रम पर वरिष्ठ अधिकारियों को अदालत में पेश होकर सफाई देनी पड़ी।
Delhi Voters Priority : पर्यावरण से बढ़कर राजनीतिक समस्या
दिल्ली के वोटरों की प्राथमिकताओं पर संदीप दीक्षित का तंज भले ही कड़वा लगे, पर इसने शहर की राजनीतिक चेतना पर एक बड़ा सवाल रख दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि जब प्रदूषण जैसा गंभीर मुद्दा चुनावी असर नहीं डालता, तो शासन-प्रशासन भी उसी अनुपात में सुस्त दिखाई देता है।
राजधानी की हवा का संकट अब सिर्फ पर्यावरणीय नहीं रहा—यह सामाजिक भी है और राजनीतिक भी। मुफ्त सुविधाएं, सुरक्षा, कोर्ट की चिंताएं और जनता की चुप्पी—सब एक ही तस्वीर के अलग-अलग टुकड़े जैसे नजर आते हैं।
