सीजी भास्कर, 03 अक्टूबर। बस्तर दशहरा की परंपरा के तहत इस बार भी 8 चक्कों वाले दो मंजिला विजय रथ की परिक्रमा करवाई गई। इसके बाद ग्रामीणों ने दशहरे की रात रथ को ‘चुरा’ लिया और सदियों पुरानी भीतर रैनी की रस्म निभाई। यह परंपरा लगातार 617 वर्षों से चली आ रही है।
रथ की परिक्रमा और भीतर रैनी की रस्म
2 अक्टूबर की रात सिरहासार भवन से रथ यात्रा शुरू हुई, जो गोलबाजार से होते हुए मां दंतेश्वरी मंदिर तक पहुंची। परंपरा अनुसार किलेपाल इलाके के सैकड़ों ग्रामीणों ने इस विशाल रथ (Bastar Dussehra) को खींचा।
परिक्रमा पूरी होने के बाद देवी का छत्र उतारकर ग्रामीण रथ को कुम्हड़ाकोट जंगल ले गए और वहां छिपा दिया। इसी रस्म को भीतर रैनी कहा जाता है।
बाहर रैनी और नवाखाई का आयोजन
आज राजपरिवार के सदस्य ग्रामीणों के बीच पहुंचेंगे और नवाखाई (धान का नया भोजन) खाएंगे। इसके बाद ग्रामीण रथ को वापस सौंपेंगे और फिर पूरे सम्मान के साथ राजमहल तक खींचकर ले जाएंगे। इस परंपरा को बाहर रैनी कहा जाता है।
रथ के आगे राजा चलते हैं और पीछे ग्रामीण उसे खींचते हैं। यह रस्म बस्तर के माड़िया समुदाय (Bastar Dussehra) के 55 गांवों की भागीदारी से पूरी होती है।
चक्के में फंसी कार, बाल-बाल बचे लोग
रथ परिक्रमा के दौरान मां दंतेश्वरी मंदिर के सामने अचानक एक कार उसके चक्के में फंस गई। रथ के साथ कार कुछ दूर तक घिसटती चली गई। हालांकि गनीमत रही कि कार में कोई बैठा नहीं था। बाद में कार को सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया।
बस्तर में वाद्ययंत्रों का महत्व
बस्तर की परंपरा में वाद्ययंत्रों का विशेष स्थान है। शादी, सांस्कृतिक कार्यक्रम और पारंपरिक नृत्यों में अलग-अलग बाजे बजाए जाते हैं। इनमें मुंडा बाजा सबसे खास माना जाता है।
मां दंतेश्वरी की डोली और छत्र के आगे इसे बजाना अनिवार्य है। कहा जाता है कि बिना मुंडा (Bastar Dussehra) बाजा बजे देवी की पूजा अधूरी मानी जाती है।