सीजी भास्कर, 22 अक्टूबर। दीपावली के एक दिन बाद आज कार्तिक मास की परवा (प्रथमा) तिथि को गोवर्धन पूजा (Govardhan Puja 2025) पूरे देश में श्रद्धा और उत्साह से मनाई जा रही है। पांच दिन की दीपोत्सव परंपरा में यह पहला ऐसा पर्व है जिसका वैदिक आधार स्पष्ट नहीं, लेकिन इसकी जड़ें सीधे पौराणिक कथाओं में निहित हैं। गोवर्धन पूजा का उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण, महाभारत और हरिवंश पुराण में मिलता है।
भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित यह पूजा ग्रामीण परंपरा का प्रतीक मानी जाती है, जो समुदाय और संगठन की सामूहिक आस्था का दर्शन कराती है। महाभारत में वर्णित प्रसंग के अनुसार, ब्रज (गोकुल, वृंदावन, बरसाना, नंदगांव) के लोग पहले इंद्र देव की वैदिक पूजा करते थे। समय के साथ इस पूजा में आडंबर बढ़ गया और भय का तत्व शामिल हो गया। दूध, दही, घी, छाछ और नई फसल का बड़ा हिस्सा इंद्र यज्ञ में खर्च होने लगा।
तब किशोर कृष्ण ने इस आडंबरपूर्ण पूजा का विरोध किया और ग्रामीणों को सलाह दी कि इंद्र के बजाय प्रकृति की पूजा की जाए — नदी, ग्राम, गोधन, पशुधन, धरती माता, वृक्ष और गोवर्धन पर्वत (Govardhan Puja 2025)। श्रीकृष्ण ने कहा कि नदी जीवन देती है, गोधन से अन्न और पोषण मिलता है, पशुधन किसान का साथी है, धरती अनाज देती है, वृक्ष फल देते हैं और गोवर्धन पर्वत ब्रज की सुरक्षा और वर्षा का आधार है।
इंद्र के क्रोध से बचाने उठाया गोवर्धन पर्वत
नंदबाबा और ब्रजवासियों ने श्रीकृष्ण की बात मान ली और इंद्र पूजा बंद कर गोवर्धन पूजा शुरू की। इससे क्रोधित देवराज इंद्र ने ब्रजभूमि पर लगातार सात दिन वर्षा कर दी। तब श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठा लिया। सात दिन और सात रात तक वे खड़े रहे, और इंद्र के क्रोध व अभिमान को शांत किया। अंततः इंद्र ने श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप को पहचाना और उनके शरणागत हो गए।
गोवर्धन पर्वत स्वयं श्रीकृष्ण का स्वरूप
हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में वर्णित यह कथा ही गोवर्धन पूजा (Govardhan Puja 2025) का आधार बनी। श्रीकृष्ण ने आठ दिन तक चलने वाले इस पर्व की परंपरा शुरू की, जिसमें गोवर्धन पूजा से लेकर गोपाष्टमी तक प्रकृति की पूजा की जाती है। ब्रजवासी अन्न, नदी, धरती और पशुधन की आराधना करते हैं।
गोवर्धन पर्वत अब लोकदेवता माने जाते हैं। कई परिवारों में वे कुलदेवता हैं। मथुरा के ब्रज क्षेत्र से लेकर राजस्थान की नाथ परंपरा तक और फिर गुजरात-महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में भी गिरधारी स्वरूप की पूजा होती है। ऐसा माना जाता है कि गोवर्धन पर्वत स्वयं श्रीकृष्ण का अचल स्वरूप हैं जो प्रकृति और भक्ति के संगम का प्रतीक है।