सीजी भास्कर, 28 मार्च। Vasudhaiva Kutumbakam: उच्चतम न्यायालय ने परिवार संस्था के क्षरण पर चिंता जाहिर करते हुए गुरुवार (27 मार्च) को कहा कि भारत में लोग ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत में विश्वास तो करते हैं, लेकिन अपने करीबी रिश्तेदारों के साथ भी एकजुट रहने में असफल हो रहे हैं. न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति एस वी एन भट्टी की पीठ ने कहा कि परिवार की अवधारणा धीरे-धीरे खत्म हो रही है और समाज में ‘एक व्यक्ति-एक परिवार’ की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है.
ये टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने एक महिला की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान की जिसमें उसने अपने बड़े बेटे को घर से बेदखल करने की मांग की थी. इस मामले में ये सामने आया कि याचिकाकर्ता समतोला देवी और उनके पति कल्लू मल के तीन बेटे और दो बेटियां थी. कल्लू मल का निधन हो चुका था और माता-पिता का अपने बेटों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध नहीं था.
पिता ने बड़े बेटे पर लगाया उत्पीड़न का आरोप
अगस्त 2014 में कल्लू मल ने स्थानीय एसडीएम को शिकायत दी थी, जिसमें उन्होंने अपने बड़े बेटे पर मानसिक और शारीरिक यातना देने का आरोप लगाया था. इसके बाद 2017 में दंपती ने अपने बेटों के खिलाफ भरण-पोषण की मांग करते हुए मामला दायर किया, जिसे सुल्तानपुर की कुटुंब अदालत में एक आपराधिक मामला माना गया. अदालत ने आदेश दिया कि बेटों को माता-पिता को 4,000 रुपये प्रति माह देना होगा.
बेटे पर रोजमर्रा की जरूरतें न पूरी करने का आरोप
कल्लू मल ने दावा किया कि उनका मकान स्वयं अर्जित संपत्ति है, जिसमें निचले हिस्से में दुकानें भी शामिल हैं, जहां उन्होंने 1971 से 2010 तक कारोबार किया था. उन्होंने आरोप लगाया कि उनके बड़े बेटे ने उनकी दैनिक और मेडिकल जरूरतों का ध्यान नहीं रखा. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि केवल पिता को संपत्ति का एकमात्र मालिक नहीं माना जा सकता, क्योंकि बेटों का भी उस पर अधिकार है.
अदालत ने सीनियर सिटिजन कानून के तहत समाधान सुझाया
अदालत ने ये भी कहा कि बेटे को घर से बेदखल करने जैसे कठोर कदम की कोई जरूरत नहीं है. इसके बजाय सीनियर नागरिक कानून के तहत भरण-पोषण का आदेश देकर समस्या का समाधान किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने पारिवारिक विवादों को सुलझाने के लिए कानूनी प्रक्रियाओं के महत्व को एक बार फिर उजागर किया है.